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Soil Health Card

सरसों की खेती से होगी धन की बरसात, यहां जानिये वैज्ञानिक उपाय जिससे हो सकती है बंपर पैदावार

सरसों की खेती से होगी धन की बरसात, यहां जानिये वैज्ञानिक उपाय जिससे हो सकती है बंपर पैदावार

सरसों (Mustard; sarson) भारत में एक प्रमुख तिलहन की फसल है, इसकी खेती ज्यादातर उत्तर भारत में की जाती है। इसके साथ ही उत्तर भारत में सरसों के तेल का बहुतायत में इस्तेमाल किया जाता है। चूंकि भारत तिलहन का बहुत बड़ा आयातक देश है, इसलिए सरकार भारत में तिलहन के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए हमेशा प्रयासरत रहती है। सरकार ने पिछले कुछ सालों में सरसों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी का ज्यादा से ज्यादा प्रयास किया है ताकि भारत को तिलहन उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बनाया जा सके। सरसों की खेती रबी सीजन में की जाती है, इस फसल की खेती में ज्यादा संसाधन नहीं लगते और न ही इसमें ज्यादा सिंचाई की जरुरत होती है। एक आम और छोटा किसान कम संसाधनों के साथ भी सरसों की खेती कर सकता है। लेकिन अगर हम पिछले कुछ समय को देखें तो जलवायु परिवर्तन और मौसम की भीषण मार का असर सरसों की खेती पर भी हुआ है, जिसके कारण उत्पादन में कमी आई है और खेती लागत बढ़ती जा रही है। ऐसे में यदि किसान सरकार द्वारा बताये गए वैज्ञानिक उपायों का इस्तेमाल करते हैं, तो वो इस घाटे की भरपाई आसानी से कर सकते हैं।


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किन-किन राज्यों में होती है सरसों की खेती

भारत में कुछ राज्यों में सरसों की खेती बहुतायत में होती है। इनमें पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और गुजरात का नाम शामिल है। इन राज्यों की जलवायु और मिट्टी सरसों की खेती के अनुकूल है और राज्य के किसान भी खेती करना पसंद करते हैं।

मिट्टी की जांच किस प्रकार से करें

किसी भी फसल की खेती में मिट्टी सबसे महत्वपूर्ण घटक है। इसलिए किसान को चाहिए कि सबसे पहले वह अपने खेत की मिट्टी की प्रयोगशाला में जांच करवायें, ताकि उसे मिट्टी की कमियों, संरचना और इसकी जरूरतों का पता चल सके। मिट्टी की जांच के पश्चात किसानों को इसका रिपोर्ट कार्ड दिया जाता है, जिसे मृदा स्वास्थ्य कार्ड (Soil Health Card) कहते हैं। इसमें मिट्टी के सम्पूर्ण स्वास्थ्य के बारे में सम्पूर्ण जानकारी होती है। कार्ड में दी गई जानकारी के अनुसार ही निश्चित मात्रा में खाद-उर्वरक, बीज और सिंचाई करने की सलाह किसानों को दी जाती है। यह वैज्ञानिक तरीका सरसों की पैदावार को कई गुना तक बढ़ा सकता है।

सरसों की बुवाई

भारत में सरसों की बुवाई प्रारम्भ हो चुकी है। वैसे तो सरसों की बुवाई अक्टूबर से लेकर दिसंबर तक की जा सकती है। लेकिन यदि इस फसल की बुवाई 5 अक्टूबर से लेकर 25 अक्टूबर के मध्य की जाए, तो बेहतर परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। सरसों की बुवाई करने के पहले खेत को पर्याप्त गहराई तक अच्छी तरह से जुताई करनी चाहिए। इसके बाद हैप्पी सीडर या जीरो टिल बेड प्लांटर के माध्यम से 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सरसों के उन्नत बीजों की बुवाई करनी चाहिए।


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बाजार में उपलब्ध सरसों की उन्नत किस्में

भारतीय बाजार में वैसे तो सरसों की उन्नत किस्मों की लम्बी रेंज उपलब्ध है। लेकिन इन दिनों आरजीएन 229, पूसा सरसों 29, पूसा सरसों 30, सरसों की पीबीआर 357, कोरल पीएसी 437, पीडीजेड 1, एलईएस 54, जीएससी-7 (गोभी सरसों) किस्में को किसान बेहद पसंद कर रहे हैं। इसलिए सरसों के इन किस्मों के बीजों की बाजार में अच्छी खासी मांग है।

सरसों की फसल में सिंचाई किस प्रकार से करें

सरसों वैसे तो विपरीत परिस्तिथियों में उगने वाली फसल है। फिर भी यदि सिंचाई का साधन उपलब्ध है तो इस फसल के लिए 2-3 सिंचाई पर्याप्त होती हैं। इस फसल में पहली बार सिंचाई बुवाई के 35 दिनों बाद की जाती है, इसके बाद यदि जरुरत महसूस हो तो दूसरी सिंचाई पेड़ में दाना लगने के दौरान की जा सकती है। किसानों को इस बात के विशेष ध्यान रखना होगा कि जिस समय सरसों के पेड़ में फूल लगने लगें, उस समय सिंचाई न करें। यह बेहद नुकसानदायक साबित हो सकता है और इसके कारण बाद में किसानों को उम्दा क्वालिटी की सरसों प्राप्त नहीं होगी।

ध्यान देने वाली अन्य चीजें

सरसों की खेती में खरपतवार की समस्या एक बड़ी समस्या है। इससे निपटने के लिए किसानों को खेत की निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिए। साथ ही यदि खेत में खरपतवार जरुरत से ज्यादा बढ़ गया है, तो किसानों को परपैंडीमेथालीन (30 EC) की एक लीटर मात्रा 400 लीटर पानी में घोलकर खेत में स्प्रे के माध्यम से छिड़कना चाहिए। ऐसा करने से किसानों को खरपतवार से निजात मिलेगी। अगर किसान चाहें तो खेत की जुताई करते समय मिट्टी में खरपतवारनाशी मिला सकते हैं ताकि बाद में परपैंडीमेथालीन के छिड़काव की जरुरत ही न पड़े। सरसों की फसल में माहूं या चेंपा कीट के आक्रमण की संभावना बनी रहती है। ये कीट फसल को पूरी तरह से बर्बाद कर सकते हैं, इनकी रोकथाम के लिए किसान बाजार में उपलब्ध बढ़िया कीटनाशक का छिड़काव कर सकते हैं। यदि किसान सरसों की खेती के साथ मधुमक्खी का पालन करते हैं तो उन्हें रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग से बचना चाहिए। रासायनिक कीटनाशकों की जगह पर वो नीम के तेल का इस्तेमाल कर सकते हैं, इसके लिए 5 मिली लीटर नीम के तेल को 1 लीटर पानी के साथ मिश्रित करें और उसका खेत में छिड़काव करें।
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सरसों की फसल में अच्छी पैदावार के लिए खेत की मेढ़ों पर मधुमक्खी पालन के डिब्बे जरूर रखें। मधुमक्खियां फसल की मित्र कीट होती है, जो पॉलीनेशन में मदद करती हैं, इससे उत्पादन में बढ़ोत्तरी संभव है। इसके साथ ही किसानों को मधुमक्खी पालन से अतिरिक्त आमदनी हो सकती है। सरसों की खेती में कुछ और चीजें ध्यान देने की जरुरत होती है, जैसे- जब सरसों के पेड़ में फलियां लगने लगें तब पेड़ के तने के निचले भाग की पत्तियों को हटा दें, इससे फसल की देखभाल आसानी से हो सकेगी और पूरा का पूरा पोषण पेड़ के ऊपरी भाग को मिलेगा। इसके साथ ही यदि ठंड के कारण फसल में पाला लगने की आशंका हो, तो 250 ग्राम थायोयूरिया को 200 लीटर पानी में घोलकर फसल के ऊपर छिड़काव कर दें। यह वैज्ञानिक उपाय करने के बाद फसल में पाला लगने की संभावना खत्म हो जाएगी।
इस वैज्ञानिक विधि से करोगे खेती, तो यह तिलहन फसल बदल सकती है किस्मत

इस वैज्ञानिक विधि से करोगे खेती, तो यह तिलहन फसल बदल सकती है किस्मत

पिछले कुछ समय से टेक्नोलॉजी में काफी सुधार की वजह से कृषि की तरफ रुझान देखने को मिला है और बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों को छोड़कर आने वाले युवा भी, अब धीरे-धीरे नई वैज्ञानिक तकनीकों के माध्यम से भारतीय कृषि को एक बदलाव की तरफ ले जाते हुए दिखाई दे रहे हैं।

जो खेत काफी समय से बिना बुवाई के परती पड़े हुए थे, अब उन्हीं खेतों में अच्छी तकनीक के इस्तेमाल और सही समय पर अच्छा मैनेजमेंट करने की वजह से आज बहुत ही उत्तम श्रेणी की फसल लहलहा रही है। 

इन्हीं तकनीकों से कुछ युवाओं ने पिछले 1 से 2 वर्ष में तिलहन फसलों के क्षेत्र में आये हुए नए विकास के पीछे अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। तिलहन फसलों में मूंगफली को बहुत ही कम समय में अच्छी कमाई वाली फसल माना जाता है।

पिछले कुछ समय से बाजार में आई हुई हाइब्रिड मूंगफली का अच्छा दाम तो मिलता ही है, साथ ही इसे उगाने में होने वाले खर्चे भी काफी कम हो गए हैं। केवल दस बीस हजार रुपये की लागत में तैयार हुई इस हाइब्रिड मूंगफली को बेचकर अस्सी हजार रुपये से एक लाख रुपए तक कमाए जा सकते हैं।

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इस कमाई के पीछे की वैज्ञानिक विधि को चक्रीय खेती या चक्रीय-कृषि के नाम से जाना जाता है, जिसमें अगेती फसलों को उगाया जाता है। 

अगेती फसल मुख्यतया उस फसल को बोला जाता है जो हमारे खेतों में उगाई जाने वाली प्रमुख खाद्यान्न फसल जैसे कि गेहूं और चावल के कुछ समय पहले ही बोई जाती है, और जब तक अगली खाद्यान्न फसल की बुवाई का समय होता है तब तक इसकी कटाई भी पूरी की जा सकती है। 

इस विधि के तहत आप एक हेक्टर में ही करीब 500 क्विंटल मूंगफली का उत्पादन कर सकते हैं और यह केवल 60 से 70 दिन में तैयार की जा सकती है।

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मूंगफली को मंडी में बेचने के अलावा इसके तेल की भी अच्छी कीमत मिलती है और हाल ही में हाइब्रिड बीज आ जाने के बाद तो मूंगफली के दाने बहुत ही बड़े आकार के बनने लगे हैं और उनका आकार बड़ा होने की वजह से उनसे तेल भी अधिक मिलता है। 

चक्रीय खेती के तहत बहुत ही कम समय में एक तिलहन फसल को उगाया जाता है और उसके तुरंत बाद खाद्यान्न की किसी फसल को उगाया जाता है। जैसे कि हम अपने खेतों में समय-समय पर खाद्यान्न की फसलें उगाते हैं, लेकिन एक फसल की कटाई हो जाने के बाद में बीच में बचे हुए समय में खेत को परती ही छोड़ दिया जाता है, लेकिन यदि इसी बचे हुए समय का इस्तेमाल करते हुए हम तिलहन फसलों का उत्पादन करें, जिनमें मूंगफली सबसे प्रमुख फसल मानी जाती है।

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भारत में मानसून मौसम की शुरुआत होने से ठीक पहले मार्च में मूंगफली की खेती शुरू की जाती है। अगेती फसलों का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि इन्हें तैयार होने में बहुत ही कम समय लगता है, साथ ही इनकी अधिक मांग होने की वजह से मूल्य भी अच्छा खासा मिलता है। 

इससे हमारा उत्पादन तो बढ़ेगा ही पर साथ ही हमारे खेत की मिट्टी की उर्वरता में भी काफी सुधार होता है। इसके पीछे का कारण यह है, कि भारत की मिट्टि में आमतौर पर नाइट्रोजन की काफी कमी देखी जाती है और मूंगफली जैसी फसलों की जड़ें नाइट्रोजन यौगिकीकरण या आम भाषा में नाइट्रोजन फिक्सेशन (Nitrogen Fixation), यानी कि नाइट्रोजन केंद्रीकरण का काम करती है और मिट्टी को अन्य खाद्यान्न फसलों के लिए भी उपजाऊ बनाती है। 

इसके लिए आप समय-समय पर कृषि विभाग से सॉइल हेल्थ कार्ड के जरिए अपनी मिट्टी में उपलब्ध उर्वरकों की जांच भी करवा सकते हैं।

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मूंगफली के द्वारा किए गए नाइट्रोजन के केंद्रीकरण की वजह से हमें यूरिया का छिड़काव भी काफी सीमित मात्रा में करना पड़ता है, जिससे कि फर्टिलाइजर में होने वाले खर्चे भी काफी कम हो सकते हैं। 

इसी बचे हुए पैसे का इस्तेमाल हम अपने खेत की यील्ड को बढ़ाने में भी कर सकते हैं। यदि आपके पास इस प्रकार की हाइब्रिड मूंगफली के अच्छे बीज उपलब्ध नहीं है तो उद्यान विभाग और दिल्ली में स्थित पूसा इंस्टीट्यूट के कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा समय-समय पर एडवाइजरी जारी की जाती है जिसमें बताया जाता है कि आपको किस कम्पनी की हाइब्रिड मूंगफली का इस्तेमाल करना चाहिए। 

समय-समय पर होने वाले किसान चौपाल और ट्रेनिंग सेंटरों के साथ ही दूरदर्शन के द्वारा संचालित डीडी किसान चैनल का इस्तेमाल कर, युवा लोग मूंगफली उत्पादन के साथ ही अपनी स्वयं की आर्थिक स्थिति तो सुधार ही रहें हैं, पर इसके अलावा भारत के कृषि क्षेत्र को उन्नत बनाने में अपना भरपूर सहयोग दे रहे हैं। 

आशा करते हैं कि मूंगफली की इस चक्रीय खेती विधि की बारे में Merikheti.com कि यह जानकारी आपको पसंद आई होगी और आप भी भारत में तिलहन फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के अलावा अपनी आर्थिक स्थिति में भी सुधार करने में सफल होंगे।

सॉयल हेल्थ कार्ड स्कीम | Soil Health Card Scheme

सॉयल हेल्थ कार्ड स्कीम | Soil Health Card Scheme

मृदा स्वास्थ्य कार्ड स्कीम समूचे देश में चलाई जा रही है। इसका उद्देश्य एक डाटा तैयार करना है कि देश की मृदा की स्थिति क्या है। किन राज्यों में किन पोषक तत्वों की कमी है। सरकार की मंशा है कि राज्यों की स्थिति के अनुरूप किसानों तक उर्वरकों की पहुंच आसान और सुनिश्चत की जाए ताकि उत्पादन में इजाफा हो सके। किसानों की माली हालत में भी सुधार हो सके। राज्य सरकार के कृषि विभाग की मदद से मृदा नमूनों का संकलन, परीक्षण एवं इसे आनलाइन अपलोड करने का काम पूरे देश में चरणबद्ध तरीके से कराया जा रहा है। यह योजना कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय  भारत सरकार द्वारा चलाई जा रही है। सॉयल हेल्थ कार्ड का उद्देश्य प्रत्येक किसान को उसके खेत की सॉयल के पोषक तत्वों की स्थिति की जानकारी देना है।

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 यह एक प्रिंटेड रिपोर्ट है जिसे किसान को उसके प्रत्येक जोतों के लिए दिया जायेगा। इसमें 12 पैरामीटर जैसे एनपीके (मुख्य - पोषक तत्व), सल्फर (गौण – पोषक तत्व), जिंग, फेरस, कॉपर, मैग्निश्यम, बोरॉन (सूक्ष्म – पोषक तत्व), और इसी ओसी (भौतिक पैरामीटर) के संबंध में उनकी सॉयल की स्थिति निहित होगी। इसके आधार पर एसएचसी में खेती के लिए अपेक्षित सॉयल सुधार और उर्वरक सिफारिशों को भी दर्शाया जायेगा। यह कार्ड आगामी फसल के लिए जरूरी पोषक तत्वों की जानकारी भी देता है। यह बात अलग कि मृदा नमूना लेने का काम क्षेत्र विशेष में ग्रिड बनाकर किए जा रहा है। इससे मोटा मोटी अनुमान लग जाता है कि किस इलाके में कौनसे पोषक तत्वों की कमी है। 

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 सवाल यह उठता है कि क्या किसान प्रत्येक वर्ष और प्रत्येक फसल के लिए एक कार्ड प्राप्त करेंगे। यह कार्ड 3 वर्ष के अंतराल के बाद उपलब्ध कराया जाएगा। सॉयल नमूने जीपीएस उपकरण और राजस्व मानचित्रों की मदद से सिंचित क्षेत्र में 2.5 हैक्टर और वर्षा सिंचित क्षेत्र में 10 हैक्टर के ग्रिड से नमूने लिए जा रहे हैं। नमूनों का संकलन सरकारी कर्मचारी, कालेज स्टूडेंट, एनजीओ वर्कर आदि किसी भी माध्यम से संकलित कराए जाते हैं। नमूनों का संकलन खाली खेतों में आसानी से हो जाता है। 

नमूना लेने का तरीका समझें किसान

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 सॉयल नमूने V आकार में मिट्टी की कटाई के उपरांत 15 – 20 सेण्टी मीटर की गहराई से निकालने चाहिए। किसान भी यह काम कर सकते हैं। नमूना कभी मेंड की तरफ से नहीं लेना चहिए। नमूने को समूचे खेत से संकलित करना चहिए ताकि समूची मृदा का प्रतिनिधित्व हो और जांच ठीक हो सके। अच्छा हो कि किसी जानकार या कृषि विभाग के व्यक्ति से नमूना लेने का तरीका समझ लिए जाए।  छाया वाले क्षेत्र से नमूना न लिया जाए। चयनित नमूने को बैग में बंद करके खेत की पहचान वाली पर्ची डालकर ​ही दिया जाए। इसके बाद ही नमने को जांच के लिए भेजा जाए। नमूनों में तीन मुख्य तत्वों की जांच तो हर जनपद स्तर पर हो जाती है लेकिन शूक्ष्म पोषक तत्वों की जांच मण्डल स्तीर प्रयोगशालाओं पर ही होत पाती है। इस परीक्षण रिपोर्ट के आधार पर ही कार्ड बनाकर जनपदों को भेजे जाते हैं। इसके बाद यह किसानों में वितरित होते हैं। किसान अपनी मिट्टी की जांच कई राज्यों में नि:शुल्क या महज पांच सात रुपए की दर से कराई जा सकती है।

खेती की लागत घटाएगा मृदा कार्ड

खेती की लागत घटाएगा मृदा कार्ड

स्वायल हेल्थ कार्ड किसानों की आय बढ़ाने के अलावा खेती की लागत को करने की दिशा में भी मील का पत्थर साबित हो सकता है। जरूरत इस बात की है कि यह हर किसान का बने और कमसे कम हर तीसरे साल में हर किसान के खेत के नमूने की जांंच हो जाए। भारत सरकार इस योजना को अमली जामा पहनाने के दाबे तो कर रही है लेकिन उसके लिए जरूरी संसाधनों का अभी बेहद अभाव है। 

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण और ग्रामीण विकास व पंचायती राज मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर ने 19 फरवरी को कहा कि मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना ने भारत को खाद्यान्न उत्पादन में अधिशेष क्षमता प्राप्त करने में मदद की है। उन्होंने कहा कि मौसम की अनिश्चितताएं देश के सामने एक नई चुनौती पेश कर रही हैं। पिछले साल बेमौसम बरसात के कारण ही प्याज की कीमतों में उछाल आया था। कृषि वैज्ञानिक लगातार इस संबंध में समाधान खोजने में लगे हुए हैं। श्री तोमर ने कहा, “हमारी योजनाओं को केवल फाइलों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि किसानों को इसका लाभ मिलना चाहिए।

   

 पांच साल पहले इस योजना के शुरू होने के बाद से दो चरणों में 11 करोड़ से अधिक मृदा स्वास्थ्य कार्ड (एसएचसी) जारी किए गए हैं। सरकार आदर्श ग्राम की तर्ज पर मृदा परीक्षण प्रयोगशाला (एसटीएल) स्थापित करने के प्रयास कर रही है। अभी भी इस दिशा में बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है।

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श्री तोमर ने बताया कि इस योजना के तहत दो साल के अंतराल में सभी किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड प्रदान किए जाते हैं। इन कार्डों में मृदा के स्वास्थ्य की स्थिति और महत्वपूर्ण फसलों के लिए मृदा परीक्षण आधारित पोषक तत्वों की सिफारिशें शामिल होती हैं। उन्होंने किसानों से आग्रह किया कि उर्वरकों के कुशल उपयोग और कृषि आय में सुधार के लिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड की सिफारिशों को अपनाएं। 

कैसे घटेगी लागत

 

फास्फोरस ​निर्यात किया जाता है। इस पर किसानों को सरकार सब्सिडी देती है। इधर किसान जानकारी के अभाव में जमीन में पर्याप्त मौजूदगी के बाद भी इसे डालते रहते हैं और हजारों रुपए एकड़ का अतिरिक्त खर्चा कर अपनी लागत में इजाफा कर बैठते हैं। इससे उजप का मुनाफा भी कम हो जाता है। कार्ड हर पोषक तत्व की मौजूदगी के अलावा आगामी फसल के लिए उसकी मात्रा की संस्तुति करता है। 

कैसे बढ़ रही आय

जब जरूरत के अनुरूप उर्वरकों का प्रयोग होगा तो उन पर होने वाले अतिरिक्त खर्चे से किसान बच सकेंगे और इससे उनके शुद्ध मुनाफे में बढ़ोत्तरी होगी। 

सुधरेगी सेहत

मिट्टी परीक्षण की संस्तुतियों के आधार पर यदि किसान प्रबंधन करना सीख जाएंगे तो वह दिन दूर नहीं कि आम उपभोक्ता और मिट्टी दोनों की सेहर में सुधार होगा। इसका असर किसान की सेहर और आर्थिक स्थिति पर सकारात्मक पड़ना तय है।

Soil Health card scheme: ये सॉइल हेल्थ कार्ड योजना क्या है, इससे किसानों को क्या फायदा होगा?

Soil Health card scheme: ये सॉइल हेल्थ कार्ड योजना क्या है, इससे किसानों को क्या फायदा होगा?

"Swasth Dharaa. Khet Haraa." - Healthy Earth. Green Farm.

सॉयल हेल्थ कार्ड योजना को भारतीय सरकार द्वारा 19 फरवरी 2015 में शुरू किया गया. इस योजना का मुख्य उद्देश्य मिट्टी के पोषक तत्वों की जांच करना है. यदि किसानों को पता होगा कि उन्हें फसल की देखभाल कैसे करनी है तो किसानों को कम खर्च में ज्यादा पैदावार मिलेगी और इन सब के लिए मिट्टी के पोषक तत्वों की जांच करवाना आवश्यक है. साथ ही इस योजना मुख्य उद्देश्य किसानों को अच्छी खाद और पोशाक तत्त्वों के इस्तमाल के लिए जागरुक करना है. सॉयल हेल्थ कार्ड योजना की शुरुआत हमारे देश के प्रधानमंत्री जी ने इसलिए शुरू की ताकि खेती के लिए उपजाऊ जमीन की पहचान कर उसमे खेती लायक पोशाक तत्वों की जांच कर पता लगाया जा सके की किस हिसाब से फसल को देखभाल की जाए. जिस वजह से पैदावार अच्छी होगी. सॉयल हेल्थ कार्ड योजना

मिट्टी के पोषक तत्वों के जांच की क्या जरूरत

मिट्टी के पोषक तत्वों के जांच से कौन सी जमीन कितनी उपजाऊ है और उसमे कितने पोषक तत्वों की जरूरत है. यदि हम ये बिना पता किए कि जमीन में कितने पोषक तत्व है, उसमे पोषक तत्वों को डालते है तो संभव है कि हम खेत में आवश्यकता से अधिक या कम खाद डाल दे. कम खाद डालने पर कम पैदावार होगी वहीं ज्यादा खाद डालने पर खाद और पैसों का नुकसान ही होगा और ये अगली बार की पैदावार में भी असर करेगा.

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नमूने की जांच कहा होगी

नमूने के जांच हेतु आप किसी नजदीकी कृषि विभाग के दफ्तर या स्थानीय कृषि पर्यवेक्षक में जमा करवा सकते है. यदि आपके निकट कोई मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला हो तो आप वहां पर भी जाकर इसकी जांच मुफ्त में करवा सकते है. जिला स्तर पर प्रयोगशाला कहां पर स्थित है उसकी जानकारी farmer.gov.in पोर्टल पर जाकर राज्यवार ली जा सकती है। अतः अपना समय और पैसा बचाने के लिए और अच्छी पैदावार के लिए मिट्टी का परीक्षण जरूर करवाएं.
हरियाणा के 10 जिलों के किसानों को दाल-मक्का के लिए प्रति एकड़ मिलेंगे 3600 रुपये

हरियाणा के 10 जिलों के किसानों को दाल-मक्का के लिए प्रति एकड़ मिलेंगे 3600 रुपये

ढैंचा, मक्का के लिए प्लान

झज्जर, रोहतक और सोनीपत के खेतों में नहीं भरेगा पानी

बीस हजार एकड़ जमीन पर जलभराव की समस्या का होगा निदान

हरियाणा में राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (
Rashtriya Krishi Vikas Yojana (RKVY)) के अंतर्गत कृषि और किसान हित से जुड़े प्रोजेक्ट को मंजूरी प्रदान की गई है। यह प्रोजेक्ट 159 करोड़ रुपए का होगा। इस प्रोजेक्ट में किसानों की समस्याओं के समाधान के साथ ही फसलों की बेहतरी से जुड़े बिंदुओं पर ध्यान दिया गया है।

फसल विविधता का लक्ष्य

देश के लिए तय फसल विविधता के लक्ष्य को साधते हुए, हरियाणा राज्य में भी फसल विविधीकरण के लिए फसल विविधता का कदम उठाया गया है।


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मुख्य सचिव संजीव कौशल की अध्यक्षता में राज्य स्तरीय अनुमोदन समिति ने राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के अंतर्गत इस प्रोजेक्ट को अनुमति प्रदान की है। हरियाणा राज्य में फसल विविधीकरण के लिए 38.50 करोड़ रुपये के बजट पर मुहर लगाई गई।

मक्का और दलहन प्रोत्साहन राशि

हरियाणा में मक्का उत्पादक किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए प्रदेश सरकार ने प्रोत्साहन राशि घोषित की है। प्रदेश में मक्का की पैदावार करने वाले किसानों को 2400 रुपए प्रति एकड़ के मान से प्रोत्साहन राशि प्रदान की जाएगी। दलहन फसलों से जुड़े किसानों के लिए भी प्रोत्साहन राशि का प्रबंध किया गया है। दलहन (Pulses) पैदावार करने वाले कृषकों को प्रदेश सरकार ने 3600 रुपए प्रति एकड़ प्रोत्साहन राशि प्रदान करने का निर्णय लिया है। प्रदेश सरकार ने दलहनी और तिलहनी उपज को बढ़ावा देने अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है।


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फसल विविधीकरण का कारण

हरियाणा राज्य सरकार, किसानों का रुझान परंपरागत खेती के साथ अन्य लाभदायक फसलों की ओर खींचने के लिए फसल विविधीकरण कार्यक्रम पर खास फोकस कर रही है। फसल विविधीकरण से सरकार का लक्ष्य सिंचन जल संचय के साथ ही किसानों की आय में वृद्धि करना है।

ढैंचा, मक्का के लिए प्लान

फसल विविधीकरण के लक्ष्य को साधने के लिए स्थानीय फसलों को प्रोत्साहित करने का सरकार का प्लान है। मुख्य सचिव ने कहा कि, हरियाणा के 10 जिलों में ढैंचा (Dhaincha, Sesbania bispinosa), मक्का और दलहनी फसलों के लिए योजना तैयार की गई है। फसल विविधीकरण की योजनाओं की मदद से इन फसलों के लिए 50 हजार एकड़ भूमि पर दलहन की पैदावार करने वाले किसानों को प्रोत्साहित किया जाएगा।

इसके लाभ

फसल विविधीकरण से राज्य की भूमि के स्वास्थ्य संवर्धन में मदद मिलेगी। इस विधि से फसल चक्र बदलने से भूजल स्तर सुधरेगा। फसल चक्र बदलने से भूजल स्तर को गिरने से रोकने में भी मदद मिलेगी।

जलभराव से मुक्ति का लक्ष्य

हरियाणा में खेत में जलभराव की समस्या से परेशान किसानों की समस्या के लिए भी सरकार ने खास तैयारी की है।


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मुख्य सचिव के मुताबिक प्रदेश के किसानों को जलभराव की समस्या से निजात दिलाने के लिए पोर्टल मदद प्रदान करेगा। इच्छुक किसान पोर्टल पर जानकारी प्रदान कर अपने खेत में भरे पानी की निकासी करवा सकता है। इस साल झज्जर, रोहतक, सोनीपत के किसानों की जलभराव संबंधी समस्या के समाधान का भी लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इसके अनुसार 20 हजार एकड़ भूमि की जलभराव संबंधी समस्या का निदान किया जाएगा।

स्वायल हेल्थ कार्ड

स्वायल हेल्थ कार्ड योजना (Soil Health Card Scheme) से हरियाणा में की जा रही मिट्टी की जांच के बारे मेें भी मुख्य सचिव ने ध्यान आकृष्ट किया।


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उन्होंने बताया कि, प्रदेश में किसानों को उनके खेत की जमीन की गुणवत्ता के अनुसार खाद, बीज आदि का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। प्रदेश में मिट्टी की गुणवत्ता जांचने के लिए 100 मिट्टी जांच लेबोरेटरी सेवाएं प्रदान कर रही हैं। इन लैबोरेट्रीज की मदद से अब तक 25 लाख सैंपल लेकर जांच की गई है।

नो टेंशन किसानी

खेती किसानी में जोखिमों की अधिक संभावनाओं के बावजूद प्रदेश के किसानों की किसानी संबंधी चिंताओं को कम करने की सरकार द्वारा कोशिश की जा रही है। मुख्य सचिव ने एग्रीकल्चर रिस्क को कम करने के लिए प्रदेश में किए जा रहे प्रयासों पर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने बताया हरियाणा में कृषि की बेहतरी के लिए कृषि उत्पाद व्यापार को बढ़ावा देकर खेती को एक लाभकारी आर्थिक गतिविधि बनाने के लिए योजनाओं का सफल क्रियान्वन किया जा रहा है। कृषि एवं कृषक हित से जुड़ी इन योजनाओं के क्रियान्वन के लिए राज्य की प्रदेश स्तरीय अनुमोदन समिति की बैठक में अनुमति दी गई है। इन योजनाओं के लागू होने से कृषि आधारित उच्च तकनीक को विकसित करने में सहायता मिल सकेगी। इन योजनाओं से मुख्य लक्ष्य किसान की आमदनी भी बढ़ेगी।
पौधे को देखकर पता लगाएं किस पोषक तत्व की है कमी, वैज्ञानिकों के नए निर्देश

पौधे को देखकर पता लगाएं किस पोषक तत्व की है कमी, वैज्ञानिकों के नए निर्देश

पहले के जमाने में किसान भाई पौधे की पत्तियों और उसके आकार को देखकर पता लगा पाते थे, कि इसमें कौन से पोषक तत्वों की कमी देखी जा रही है, पर अभी के युवा किसान इस तरह से पोषक तत्वों की कमी को पहचान नहीं पाते हैं। इसी वजह से, बिना अपने खेत की मिट्टी की जांच करवाए हुए ही केमिकल का अंधाधुंध इस्तेमाल किया जा रहा है। बिना पोषक तत्वों की कमी के भी किसी भी खेत में यूरिया डाला जा रहा है, इसी वजह से उस खेत की उत्पादकता कम होने के साथ-साथ वहां की जमीन भी अनुर्वर होती जा रही है। पिछले कुछ सालों से कृषि विभाग के द्वारा सॉइल हेल्थ कार्ड (Soil Health Card) के जरिए किसानों को अपने खेत में मौजूद मृदा में होने वाले पोषक तत्वों की कमी की जानकारी दी जाती है, लेकिन बहुत से लोगों को इस प्रकार के कार्ड की कोई जानकारी ही नहीं होती है।

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पौधों को देखकर पोषक तत्वों की कमी को ऐसे पहचानें

आज, हम सभी किसान भाइयों को उनके खेत में उगने वाले पौधों को देखकर, पोषक तत्वों की कमी को पहचानने की कुछ जानकारी बताएंगे। भारत के सभी खेतों में नाइट्रोजन की मात्रा लगभग उचित मात्रा में पाई जाती है, लेकिन फिर भी यूरिया पर सब्सिडी मिलने की वजह से इसका गलत इस्तेमाल होता है।

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  • सभी किसान भाइयों को जान लेना होगा कि यदि आप के खेत में उगने वाले पौधे की पत्तियां आगे से नुकीली हो जाए और उनका रंग गहरा पीला हो जाए तो उस स्थिति में पौधे का आकार भी छोटा ही रह जाएगा, इस स्थिति में आप पहचान पाएंगे कि उस में नाइट्रोजन की कमी है।
  • यह बात ध्यान रखें कि की पत्तियों का रंग हरा हो जाए तो उस में सल्फर की कमी भी पाई जा सकती है और पत्तियों के बाहरी किनारे पीले शुरू हो जाते है।
  • मेंगनीज पोषक तत्व की कमी के दौरान पत्तियां पीली पड़ जाती है और कुछ समय तक उन्हें पर्याप्त उर्वरक नहीं मिलने पर टूट कर नीचे भी गिर सकती है।
  • जिंक और मैग्नीशियम जैसे पोषक तत्वों की कमी होने से पतियों का आकार बहुत छोटा रह जाता है और उनका रंग बहुत पीला हो जाता है, इस स्थिति से बचने के लिए किसान भाइयों को मैग्नीशियम और जिंक की पूर्ति करने वाले फर्टिलाइजर का इस्तेमाल करना चाहिए।


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  • यदि आप के खेत की मिट्टी में फास्फोरस की कमी रहती है तो आपके पौधे का आकार बहुत ही छोटा दिखाई देगा और उसका रंग तांबे के जैसा हो जाता है, इसके अलावा उस पौधे का तना इतना कमजोर हो जाता है कि वह वजन भी सम्भाल नहीं पता और पत्तियां धीरे-धीरे नीचे गिरना शुरू हो जाती है।
  • कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार कैल्शियम की कमी होने पर पौधे का ऊपरी सिरा धीरे धीरे सूखना शुरू कर देता है और कुछ ही समय में पत्तियां टूट जाती है, इसके अलावा जो नीचे की पत्तियां होती है कैल्शियम की कमी से सबसे ज्यादा प्रभावित होती है और उन्हें निकलने में ही अधिक समय लगता है।
  • यदि आप के खेत में मक्के की खेती की जा रही है, तो कैल्शियम की कमी से पौधे के नाले चिपक जाते हैं और उनसे मक्का बाहर ही नहीं निकल पाता है।
  • बोरोन जैसे कम इस्तेमाल होने वाले पोषक तत्व की कमी से भी पत्तियों का रंग पीला पड़ सकता है और उसकी कलियां सफेद या फिर भूरे रंग की दिखाई देती लगती है।
  • पूसा के वैज्ञानिकों के अनुसार आयरन की कमी होने पर पत्तियों की शिरा एकदम हरी हो जाती है और उसके कुछ समय बाद ही इनका रंग धीरे-धीरे पीला पड़ना शुरू हो जाता है, इन पत्तियों को ध्यान से देखने पर इनमें कोई धब्बा भी नजर नहीं आता है,जिससे कि पौधे की आगे की ग्रोथ पूरी तरीके से रुक सकती है और फिर पत्तियां धीरे-धीरे नीचे की तरफ झुकना शुरू हो जाती है।
  • आयरन की ही कमी होने से इन पत्तियों से एक चिपचिपा पदार्थ निकलने लगता है, जो कि इस पौधे के आसपास में उगने वाले दूसरे छोटे पौधों को भी प्रभावित कर सकता है।
यह बात सभी किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा कि भारत की मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों की मात्रा पहले से ही पर्याप्त पाई जाती है, लेकिन कुछ मुख्य पोषक तत्वों की कमी की वजह से हमारी खेती की उत्पादकता कम मिलती है।

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आशा करते हैं, कि हमारे किसान भाइयों को इस जानकारी से पौधों को देखकर ही उस में होने वाले पोषक तत्वों की कमी का अंदाजा लगाया जाना आसान हो गया होगा। अब जिन सूक्ष्म तत्वों की कमी होगी, सिर्फ उन्हीं का ही इस्तेमाल खेत में करना पड़ेगा। इससे उर्वरकों पर होने वाले खर्चे भी काफी कम हो जाएंगे, साथ ही खेत की उपज बढ़ने के अलावा आपके मुनाफे में भी अच्छी वृद्धि हो सकेगी।
कम उर्वरा शक्ति से बेहतर उत्पादन की तरफ बढ़ती हमारी मिट्टी

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भारत में पाई जाने वाली मृदा का वर्गीकरण और सम्पूर्ण जानकारी

कई लाखों साल में बनकर तैयार होने वाली मिट्टी की एक छोटी सी परत, किसान भाइयों के लिए कृषि के दौरान इस्तेमाल में आने वाली एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक स्रोत है। बेहतरीन गुणवत्ता की मृदा की मदद से ही आज हम अपनी खेती से अधिक उत्पादकता प्राप्त कर पा रहे हैं, साथ ही इस मृदा में कई प्रकार के छोटे जीव जंतु भी रहते है। हर प्रकार की मिट्टी में जैविक और अजैविक तत्व पाए जाते हैं, जैविक तत्व को
ह्यूमस (humus) के नाम से जाना जाता है।

भारतीय मृदा का वर्गीकरण (Soil classification) :

अलग-अलग प्रकार की मृदा निर्माण में शामिल अलग-अलग प्रकार के कारक, उनके रंग, मृदा के कणों की मोटाई, उम्र तथा रासायनिक और भौतिक गुणों के आधार पर भारत में पायी जाने वाली मृदा को कई प्रकार से विभाजित किया जा सकता है, जो कि निम्न प्रकार से है :- अलग-अलग प्रकार की वातावरणीय परिस्थितियां और वहां पाए जाने वाली वनस्पति तथा लैंडफॉर्म (Landform) विभिन्न प्रकार की मृदा निर्माण में सहायक भूमिका निभाते है।


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जलोढ़ मिट्टी (Alluvial soil) :

भारत के कुल क्षेत्रफल में पायी जाने वाली सभी मृदाओं में सर्वाधिक योगदान जलोढ़ मिट्टी या दोमट मृदा का ही है।

उतरी भारतीय समतल मैदान पूर्णतः जलोढ़ मिट्टी (jalod mitti) से ही निर्मित है, इन मैदानों का निर्माण मुख्यतः गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदी के नदी तंत्र द्वारा लाए जाने वाले मिट्टी से हुआ है। राजस्थान और गुजरात के कुछ क्षेत्रों में भी जलोढ़ मृदा पाई जाती है। इसके अलावा पूर्वी भारत की नदियों के डेल्टा के द्वारा भी जलोढ़ मृदा के मैदानों को तैयार किया गया है, जिनमें महानदी, गोदावरी और कृष्णा नदियों की मुख्य भूमिका रही है।

जलोढ़ मृदा में मिट्टी और सिल्ट की अलग-अलग मात्रा पाई जाती है। जलोढ़ मृदा निर्माण में लगने वाले समय अथार्त उम्र के आधार पर, इसे दो भागों में विभाजित किया जाता है, जिन्हें बांगर (Bangar) और खादर (Khadar) के नाम से जाना जाता है।

खादर प्रकार की जलोढ़ मृदा को नई जलोढ़ कहा जाता है और इसमें पतले कणों (Fine Particles) की संख्या ज्यादा होती है और बांगर की तुलना में यह ज्यादा उर्वरा शक्ति वाली मृदा होती है

यदि बात करें जलोढ़ मृदा में पाए जाने वाले पोषक तत्वों की, तो इसमें पोटाश, फास्फोरिक अम्ल और लाइम जैसे पोषक तत्वों की उचित मात्रा पाई जाती है। इसीलिए इस प्रकार की मृदा गन्ना, धान और गेहूं के अलावा कई प्रकार की दालों के उत्पादन के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है।

जलोढ़ मृदा की बेहतर उर्वरा शक्ति की वजह से जिन जगहों पर यह मृदा पाई जाती है, वहां पर अग्रसर कृषि (Intensive Cultivation) की जाती है और ऐसी जगहों का जनसंख्या घनत्व भी अधिक होता है।

सूखी और कम बारिश वाली जगह पर पाई जाने वाली मृदा में अम्लता के गुण ज्यादा होते है, लेकिन मृदा के उचित उपचार एवं बेहतर सिंचाई की मदद से इसे भी कृषि में इस्तेमाल योग्य बनाया जा सकता है।

लाल एवं पीली मृदा (Red and Yellow soil) :

आग्नेय प्रकार की चट्टानों से निर्मित होने वाली यह मृदा कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पाई जाती है। दक्कन के पठार के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों में इस प्रकार की मृदा का सर्वाधिक देखा जाता है। इसके अलावा उड़ीसा, छत्तीसगढ़ एवं गंगा के मैदानों के दक्षिणी क्षेत्रों में भी कुछ क्षेत्रों में यह मृदा पायी जाती है।

इस प्रकार की मृदा का रंग लाल होने का पीछे का कारण यह है कि इसके निर्माण में आयरन (iron) चट्टानों का योगदान रहता है और जब यह मृदा पूरी तरह से हाइड्रेट रूप (Hydrate Form) में होती है, तो इनका रंग पीला दिखाई देता है।

काली मृदा (Black soil) :

कपास के उत्पादन के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली इस मृदा का रंग काला होता है, इसे रेगुरु मृदा (Regur soil) भी कहा जाता है।

दक्कन के पठार (Deccan Plateau) और इसके उत्तरी पूर्वी क्षेत्रों में पाई जाने वाली काली मृदा, जमीन से निकले लावा से निर्मित हुई है, इसीलिए इसका रंग काला होता है। महाराष्ट्र और सौराष्ट्र के पठारी क्षेत्र के अलावा मालवा और मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में पाई जाने वाली रेगुर मिट्टी गोदावरी और कृष्णा नदी की घाटियों में भी फैली हुई है।

पतले पार्टीकल से बनी हुई यह मिट्टी पानी और उसकी नमी को बहुत ही अच्छे से रोक कर रख सकती है।

कई प्रकार के मृदा पोषक तत्व जैसे कि कैलशियम कार्बोनेट, मैग्नीशियम और पोटेशियम तथा लाइम की अधिकता वाली इस मिट्टी में फास्फोरस जैसे सूक्ष्म तत्वों की कमी पाई जाती है।

गर्मी के मौसम के दौरान इस प्रकार की मृदा में बड़े-बड़े क्रेक (cracks) दिखाई देते है, जो कि इस मृदा का एक बेहतरीन लक्षण है और इन क्रेक की वजह से मिट्टी के अंदर तक हवा का आसानी से आदान-प्रदान हो जाता है।

बारिश के दौरान यह मृदा चिकनी हो जाती है। कृषि वैज्ञानिकों की राय के अनुसार, काली मृदा की मॉनसून आने से पहले ही जुताई कर देना सही रहता है, क्योंकि एक बार बारिश में भीग जाने पर इसकी जुताई करना बहुत मुश्किल होता है।

लेटराइट मृदा (Laterite soil) :

इस मृदा का नामकरण लेटिन भाषा के शब्द 'लेटर' से हुआ है जिसका तात्पर्य होता ईंट।

उष्ण एवं उपोष्ण जलवायुवीय परिस्थितियों से निर्मित हुई यह मिट्टी नमी और सूखे दोनों ही प्रकार के स्थानों पर देखने को मिलती है। एक समय सामान्य प्रकार की मिट्टी के रूप में जाने जाने वाली लेटराइट मृदा उच्च स्तर पर मृदा लीचिंग (soil leaching) होने की वजह से निर्मित हुई है।

लेटराइट मृदा की pH का मान 6 से कम होता है, इसीलिए इन्हें अम्लीय मृदा भी कहा जा सकता है।

दक्षिण के कुछ राज्यों और पश्चिमी घाट से जुड़े हुए राज्य जैसे कि महाराष्ट्र और गोवा में इस प्रकार की मृदा देखने को मिलती है, साथ ही उत्तरी पूर्वी भारत के कई राज्यों में भी यह पाई जाती है।

पतझड़ और हरित वनों को आधार प्रदान करने वाली इस मिट्टी में ह्यूमस की कमी देखने को मिलती है।

लेटराइट मृदा मुख्यतः ढलाव वाली जगहों पर पाई जाती है, इसीलिए मृदा अपरदन जैसी समस्या अधिक देखने को मिलती है।

मृदा संरक्षण की बेहतरीन तकनीकों को अपनाकर केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्य इसी मृदा के इस्तेमाल से बेहतरीन गुणवत्ता की चाय और कॉफी का उत्पादन कर रहे हैं, साथ ही तमिलनाडु के कुछ क्षेत्रों में पाई जाने वाली लाल लेटराइट मृदा, काजू के उत्पादन के लिए सर्वश्रेष्ठ समझी जाती है।

शुष्क मृदा (Arid soil) :

प्रकृति में लवणीय मृदा के रूप में पहचान बना चुकी शुष्क मृदा भूरे और हल्के लाल रंग में देखी जाती है।

कई जगहों पर पाई जाने वाली शुष्क मृदा में लवणीयता का गुण इतना अधिक होता है कि इस प्रकार की मृदा से दैनिक इस्तेमाल में आने वाला नमक भी प्राप्त किया जाता है।

कम बारिश वाले शुष्क स्थानों और अधिक तापमान वाले क्षेत्रों में पाई जाने वाली इस मृदा में वाष्पोत्सर्जन की दर बहुत तेज होती है, इसी वजह से इनमें ह्यूमस और नमी की कमी भी देखने को मिलती है।

शुष्क मृदा में गहराई पर जाने पर कैल्शियम की मात्रा अधिक हो जाती है और मृदा अपरदन के दौरान ऊपर की परत हट जाने से नीचे की बची हुई मिट्टी फसल उत्पादन के लिए पूरी तरीके से अनुपयोगी हो जाती है। हालांकि, पिछले कुछ समय से कृषि विज्ञान की नई तकनीकों और बेहतर मशीनरी की मदद से राजस्थान और गुजरात के शुष्क इलाकों में पाई जाने वाली मिट्टी भी फसल उत्पादकता में वृद्धि देखने को मिली है।

वनीय मृदा (Forest soil) :

चट्टानी और पर्वतीय क्षेत्रों में पायी जाने वाली यह मृदा उस क्षेत्र की पर्यावरणीय परिस्थितियों से प्रभावित होती है।

हिमालय और उसके आसपास के क्षेत्रों में पाई जाने वाली मृदा पर बर्फ पड़ने की वजह से आच्छादन (Denudation) जैसी समस्या देखने को मिलती है और इसी वजह से उसके अम्लीय गुणों में भी वृद्धि होती है, जिस कारण ऊपरी ढलानी क्षेत्रों पर फसल और खेती का उत्पादन नहीं किया जा सकता है और केवल कठिन परिस्थितियों में उगने वाले वनों के पौधे ही विकसित हो पाते है।

घाटी के निचले स्तर पर पाई जाने वाली वनीय मृदा की उर्वरा शक्ति अच्छी होती है, इसीलिए उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कुछ किसान घाटी से जुड़े हुए समतल मैदानों पर आसानी से कृषि उत्पादन कर सकते है।

इन सभी मृदा के प्रकारों के अलावा भारतीय मृदा को अम्लीयता एवं क्षारीयता के गुणों के आधार पर भी दो भागों में बांटा जा सकता है। वर्षा की अधिकता वाले स्थानों पर पाई जाती पायी जाने वाली और मृदा की लीचिंग होने वाली जगहों की मिट्टी की pH का मान 7 से कम होता है, इसीलिए इन्हें अम्लीय मृदा कहा जाता है और जिन मृदाओं में pH मान 7 से अधिक होता है, उन्हें क्षारीय मृदा कहा जाता हैआईसीएआर (ICAR - The Indian Council of Agricultural Research) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के कुल मृदा क्षेत्रफल में 70% हिस्सेदारी अम्लीय मृदा की है।


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भारतीय मृदाओं की समस्या :

किसानों की उपज और मुनाफे के सर्वश्रेष्ठ स्रोत कृषि उत्पादन में मुख्य भूमिका निभाने वाली भारतीय मृदा कई प्रकार की समस्याओं से जूझ रही है। अलग-अलग राज्यों में यह समस्या अलग-अलग हो सकती है, जैसे कि पंजाब और हरियाणा राज्य में पानी के अधिक इस्तेमाल की वजह से मृदा में अम्लीयता एवं लवणता की समस्या बढ़ रही है, जिससे कि समय के साथ इन राज्य में होने वाला उत्पादन भी कम होते जा रहा है। इसके अलावा मध्य भारत और उत्तरी भारत के राज्य में पशुओं के द्वारा इस्तेमाल में आने वाले चारे के कारण ओवरग्रेजिंग (Over-grazing) से खरपतवार बहुत तेजी से बढ़ रही है और इसी कारण मृदा की उर्वरा शक्ति भी कम होती जा रही है।


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इसके अलावा कृषि का आधुनिक मशीनीकरण और अधिक उत्पादन के लिए मृदा पर किए जा रहे रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से भी नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहे है और मृदा की उर्वरा शक्ति में भारी कमी होने के साथ ही मर्दा के कणों में आपस में जुड़े रहने की क्षमता भी कम हो रही है, जिससे मृदा अपरदन की समस्या भी अधिक देखने को मिल रही है।

मृदा अपरदन (Soil erosion) :

पानी और हवा की वजह से मृदा की ऊपरी परत के आच्छादन (Denudation) होने की समस्या को ही मृदा अपरदन कहते है। मृदा अपरदन कोई आधुनिक समस्या नहीं है, बल्कि प्राचीन काल से ही चली आ रही है। हालांकि प्रकृति अपने नियमों के अनुसार मृदा अपरदन और मृदा के निर्माण में एक संयम बना कर रखती थी, परंतु पिछले कुछ समय से प्रकृति के साथ मानवीय छेड़छाड़ जैसे कि वनों की कटाई और विकास के लिए किए जा रहे कंस्ट्रक्शन और माइनिंग के कार्य तथा ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं से यह बैलेंस पूरी तरीके से बिगड़ गया है और अब मृदा अपरदन समस्या बहुत तेजी से बढ़ती हुई नजर आ रही है। पानी से होने वाले मृदा अपरदन को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है :-
  • गली अपरदन (Gully erosion) :

मृदा के एक हिस्से के ऊपर से बह रहा पानी मिट्टी को काटकर धीरे-धीरे उसमें एक गहरी गली बना लेता है और धीरे-धीरे यह गली खेत की पूरी जमीन में फैल जाती है।

चंबल नदी के पानी के द्वारा किए गए गली अपरदन की वजह से ही उसके आसपास के क्षेत्र फसल उपजाऊ करने के लिए पूरी तरीके से अनुपयोगी हो चुके है, ऐसे क्षेत्रों को खड़ीन (khadin) नाम से जाना जाता है।

  • परत अपरदन (Sheet erosion) :-

ढलान वाली जगहों पर कई बार पानी एक परत के रूप में मृदा के ऊपर से बहता है और अपने साथ मृदा की ऊपरी परत को भी बहाकर ले जाता है।

किसान भाई यह तो जानते ही है कि बेहतर फ़सल उत्पादन के लिए मृदा की ऊपरी परत सर्वश्रेष्ठ होती है। अपरदन की वजह से ऊपरी परत बह जाने से नीचे बची हुई परत को फिर से उर्वरक और बेहतरीन सिंचाई की कठिन मेहनत के बाद भी उपजाऊ बनाना काफी मुश्किल होता है। पहाड़ी और ढलान वाले क्षेत्रों में मृदा अपरदन की समस्या को रोकना थोड़ा मुश्किल होता है, हालांकि फिर भी कृषि विज्ञान की नई तकनीकों और मृदा अपरदन के क्षेत्र में काम कर रहे सक्रिय एक्टिविस्ट लोगों की मदद से नई तकनीकों का विकास किया जा चुका है, इस प्रकार की तकनीकों को मृदा संरक्षण के नाम से जाना जाता है।


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मृदा अपरदन रोकने / मृदा संरक्षण (Soil Conservation) के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक :-

गलत तरीके से जुताई करने की वजह से भी कई बार मृदा अपरदन हो सकता है, क्योंकि यदि आप खेत के एक हिस्से में कल्टीवेटर की मदद से कम गहरी जुताई करते है और दूसरे कोने में अधिक गहरी जुताई हो जाए तो वहां पर ढलान वाला क्षेत्र निर्मित हो जाता है, जिससे पानी को आसानी से लुढ़कने के लिए पर्याप्त जगह मिल जाती है और मृदा का कटाव होना शुरू हो जाता है इस प्रकार से होने वाले मृदा अपरदन को रोकने के लिए समोच्च जुताई (Contour Ploughing ) की विधि को अपनाया जाता है। समोच्च जुताई की मदद से जुताई के दौरान बनने वाली अलग-अलग पंक्तियों में जल का वितरण किया जा सकता है। मिट्टी की गुणवत्ता एवं उर्वरा शक्ति तथा संरचना को बरकरार रखने में मददगार यह विधि पहाड़ी और ढलानी क्षेत्र के किसानों के द्वारा सर्वाधिक इस्तेमाल में लाई जाती है, भारत में भी हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और आसाम तथा सिक्किम जैसे राज्यों के किसान इस विधि की मदद से मृदा अपरदन को रोकने में सफल हुए है। इसके अलावा ऐसे क्षेत्रों में सीढ़ी नुमा खेती (Terrace cultivation) भी की जाती है, जिसमें पहाड़ियों वाले क्षेत्र को अलग-अलग ब्लॉक्स में बांट दिया जाता है और एक सीढ़ी जैसी संरचना बना दी जाती है, जिससे कि पहाड़ी के ऊपरी हिस्से पर गिरने वाला पानी तेज गति से मृदा का कटाव करते हुए नीचे की तरफ ना आ पाए और ढलाव के दौरान ही पानी को रुकने के लिए थोड़ा समय मिल जाए, जिससे मृदा की ऊपरी परत के अपरदन को बचाया जा सकता है। तेज हवा चलने वाले इलाकों में मृदा अपरदन को बचाने के लिए खेत के चारों तरफ बड़े-बड़े पेड़ लगा दिए जाते है, जो कि खेत में उगने वाली फसल को तेज हवा से बचाव प्रदान करते है, इस प्रकार की विधि को शेल्टरबेल्ट / वातरोधक विधि (Shelter belt cultivation) कहा जाता है। भारत के पश्चिमी भागों और रेगिस्तानी क्षेत्रों में खेती वाली जमीन में मिट्टी के टीलों के प्रसार को रोकने के लिए भी इस विधि का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा रेगिस्तानी क्षेत्रों में कृषि के लिए प्रयासरत कुछ अरब देश जैसे सऊदी अरेबिया और संयुक्त अरब अमीरात में खेती के दौरान फसलों की पंक्तियों के बीच में घास की अलग-अलग पंक्तियां उगायी जाती है जो कि हवा के दबाव को कम करने के साथ ही वायु से होने वाले मृदा अपरदन को रोकने में सहायक होती है, इस तकनीक को स्ट्रिप क्रॉपिंग / पट्टीदार खेती (Strip Cultivation) के नाम से जाना जाता है।


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मृदा की घटती उर्वरा क्षमता और मृदा संरक्षण को बेहतर बनाने के लिए किए गए सरकारी प्रयास :

हरित क्रांति के शुरुआत में ही भारतीय सरकार और कृषि वैज्ञानिकों ने यह तो समझ लिया था कि केवल उच्च गुणवत्ता वाले बीज और अधिक सिंचाई से ही नहीं, बल्कि मृदा की बेहतर गुणवत्ता से ही अधिक उत्पादन किया जा सकता है और इसी की तर्ज पर चलते हुए भारत सरकार और कई राज्य सरकारों ने मृदा संरक्षण के लिए कुछ सरकारी स्कीम शुरू की है, जो कि निम्न प्रकार है :-

राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY - Rashtriya Krishi Vikas Yojana) :

मृदा की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के अलावा अलग-अलग क्षेत्रों में पायी जाने वाली मृदा की गुणवत्ता में तुलनात्मक अंतर को किसानों तक पहुंचाकर जागरूकता लाने के उद्देश्य से प्रारम्भ की गई यह योजना काफी सफल रही है। इस योजना में मृदा की ऊपरी परत में होने वाले अपरदन को रोकने के लिए कई नए प्रयास किए गए हैं। इसके अलावा नदी-घाटियों के प्रसार को रोकने के लिए भी उपाय सुझाए गए है, जिससे कि पानी के कम फैलाव से लीचिंग तथा खडीन जैसी समस्याएं कम देखने को मिले।

मृदा स्वास्थ्य कार्ड स्कीम (Soil health card scheme) :

2015 में लांच की गई इस स्कीम के तहत भारत सरकार किसानों की मृदा की गुणवत्ता की जांच करने के लिए 'स्वस्थ धरा, खेत हरा' की तर्ज पर काम करते हुए अलग-अलग मृदा स्वास्थ्य कार्ड प्रदान कर रही है।


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मृदा स्वास्थ्य कार्ड में 12 अलग-अलग पैरामीटर के आधार पर किसान भाइयों को उर्वरकों के सीमित इस्तेमाल की सलाह दी जाती है, जिनमें कुछ सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे कि नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम के अलावा द्वितीय पोषक तत्व जैसे कि जिंक, फेरस, कॉपर की मात्रा की जानकारी देने के साथ ही मृदा की अम्लीयता की जानकारी भी प्रदान की जाती है। इस स्कीम के तहत कोई भी किसान भाई अपने आसपास में स्थित कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों की मदद से खेत की मिट्टी की जांच करवा सकता है और उनके द्वारा दी गई सलाह का सही पालन करके हुए मृदा की उर्वरा क्षमता बरकरार रखने के साथ ही अपनी उत्पादकता को बेहतर कर सकता है।

नाबार्ड की मृदा संरक्षण के लिए चलाई गई लोन स्कीम (NABARD loan scheme on Soil Conservation) :

2001 से लगातार संचालित हो रही यह स्कीम किसानों को समोच्च विकास (Sustainable Development) की अवधारणा पर काम करने की सलाह देती है और कुछ नई वैज्ञानिक तकनीकों की मदद से किसान भाइयों की उपज को बढ़ाने में मदद करती है। पर्यावरण के कम नुकसान के साथ मृदा की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए ग्रामीण चौपालों का आयोजन किया जाता है, इन चौपालों में किसान भाइयों को मृदा अपरदन के लिए जागरूकता प्रदान की जाती है। इसके अलावा झूम कृषि समस्या से ग्रसित उत्तरी पूर्वी राज्यों में भारत की आजादी से ही मृदा संरक्षण के लिए कई प्रकार की सरकारी योजनाएं चलाई जा रही है।भारत में झूम कृषि मुख्यतः उत्तरी पूर्वी राज्यों में की जाती है। कृषि की इस विधि में कुछ किसानों के द्वारा जंगलों को काट कर साफ कर लिया जाता है और वहां पर फसल उगाई जाती है, जब दो से तीन सीजन के बाद इस जमीन की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है तो दूसरी जगह पर बने जंगलों को काट कर वहां की जमीन को इस्तेमाल में लिया जाता है। पिछले कुछ सालों से पर्यावरण के लिए एक घातक विधि के रूप में हो रही झूम खेती को रोकने के लिए किसानों में जागरूकता लाने के लिए कई पर्यावरणविद  और सरकार प्रयासरत है। ईशा फाउंडेशन के द्वारा मृदा संरक्षण के लिए चलाया जा रहा मृदा बचाओ आंदोलन (Save soil movement) अनोखी विश्वस्तरीय पहल है और अब केवल जंगल और पानी ही नहीं बल्कि मृदा संरक्षण के लिए भी कई ग्रामीण किसान भाई प्रयासरत है।
"मृदा से है जीवन अपना, इसकी सुरक्षा हमारा सपना"
की सोच पर काम करने वाले कई किसान भाई पूरे देश भर में प्राकृतिक कृषि और वैज्ञानिक विधियों की मदद से समोच्च विकास की अवधारणा पर आगे बढ़ते हुए भारतीय कृषि की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के अलावा मृदा के संरक्षण में भी एक सफल व्यक्तित्व के रूप में उभरकर सामने आए है।
जानें किस प्रकार किसान भाई पौधों में पोषक तत्वों की कमी का पता लगा सकते हैं

जानें किस प्रकार किसान भाई पौधों में पोषक तत्वों की कमी का पता लगा सकते हैं

पौधों में भी आम इंसान की ही भांति पोषक तत्वों की कमी होती रहती है, जिसको पूरा करने के लिए उन्हें भी बाहरी पोषक तत्वों पर आश्रित रहना पड़ता है। परंतु, समस्या तब होती है, जब हम उनमें किस पोषक तत्व का अभाव है यह समझ ही नहीं पाते हैं। चलिए आज हम आपको यही बताते हैं, कि आप कैसे किसी पौधे में इसकी पहचान कर सकते हैं। एक फलते-फूलते बगीचे अथवा सफल फसल के लिए स्वस्थ पौधे जरूरी हैं। पोषक तत्वों की कमी पौधों की उन्नति एवं वृद्धि को प्रभावित कर सकता है, जिससे बढ़वार रुक जाती है। वहीं, पत्तियां भी पीली पड़ जाती हैं एवं फल अथवा फूल का उत्पादन खराब हो जाता है। हम आपको आज पौधों में किस तत्व की कब कमी हो रही है इसके विषय में जानकारी प्रदान करेंगे। पौधों को अपनी बढ़वार एवं विकास के लिए बहुत सारे आवश्यक पोषक तत्वों की जरूरत होती है। इन पोषक तत्वों को मोटे रूप में दो समूहों में विभाजित किया जा सकता है। मैक्रोन्यूट्रिएंट्स और माइक्रोन्यूट्रिएंट्स।

मैक्रोन्यूट्रिएंट्स (Macronutrients)

पौधों को मैक्रोन्युट्रिएंट्स की भरपूर मात्रा में आवश्यकता होती है और इसमें नाइट्रोजन (N), फॉस्फोरस (P), पोटेशियम (K), कैल्शियम (CA), मैग्नीशियम (MG), और सल्फर (S) शम्मिलित हैं।

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सूक्ष्म पोषक तत्व (Micronutrients)

सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता कम मात्रा में होती है और इसमें आयरन (Fe), मैंगनीज (Mn), जिंक (Zn), तांबा (Cu), बोरान (B), मोलिब्डेनम (Mo), एवं क्लोरीन (Cl) शम्मिलित हैं।

पोषक तत्वों की कमी के लक्षणों को पहचानना

पोषक तत्वों की कमी सामान्यतः पौधों की पत्तियों, तनों एवं उनकी वृद्धि में उनके लक्षणों के आधार पर दिखाई देती है। बतादें, कि हम आपको कुछ सामान्य लक्षणों के आधार पर यह जानकारी देंगे कि किस प्रकार आप किसी पौधे में किस तत्व की कमी को पहचान पाऐंगे। नाइट्रोजन (N) की कमी: पुरानी पत्तियों का पीला पड़ना (क्लोरोसिस) जो सिरों से शुरू होकर अंदर की तरफ फैलता है, विकास रुक जाता है।

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फास्फोरस (P) की कमी: लाल-बैंगनी रंग के साथ-साथ गहरे हरे पत्ते, पुरानी पत्तियां नीली-हरी अथवा भूरी हो सकती हैं और मुड़ सकती हैं। पोटेशियम (K) की कमी: पत्तियों के किनारों और सिरों का पीला या भूरा होना, तने कमजोर होना। आयरन (Fe) की कमी: नई पत्तियों पर इंटरवेनल क्लोरोसिस (नसों के बीच पीलापन), पत्तियां सफेद अथवा पीली हो सकती हैं। मैग्नीशियम (Mg) की कमी: पुरानी पत्तियों पर इंटरवेनल क्लोरोसिस, पत्तियां लाल-बैंगनी अथवा मुड़ी हुई हो सकती हैं। कैल्शियम (Ca) की कमी: नई पत्तियाँ विकृत हो सकती हैं और सिरे वापस मर सकते हैं, फलों में फूल के सिरे सड़ सकते हैं। सल्फर (एस) की कमी: नई पत्तियों का पीला पड़ना, रुका हुआ विकास और बीज और फलों का उत्पादन कम होना। सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी: यह सूक्ष्म पोषक तत्व के आधार पर अलग-अलग होते हैं। उदाहरण के लिए आयरन के अभाव से इंटरवेनल क्लोरोसिस दिखाई देता है। साथ ही, जिंक की कमी से पत्तियां छोटी और विकृत हो जाती हैं। यदि आप इन लक्षणों को किसी भी पौधे में देखते हैं तो आप यह बेहद ही सुगमता से पहचान कर सकते हैं, कि उस पौधे में किस पोषक तत्व की कमी है। एक बार लक्षण का पता चल जाए तो आप उसके मुताबिक उसका उपचार बड़ी सुगमता से खोज सकते हैं।
22 करोड़ से ज्यादा किसानों को बांटे गए सॉइल हेल्थ कार्ड, जानिए क्यों है ये इतने महत्वपूर्ण

22 करोड़ से ज्यादा किसानों को बांटे गए सॉइल हेल्थ कार्ड, जानिए क्यों है ये इतने महत्वपूर्ण

5 दिसम्बर को विश्व मृदा दिवसकृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने जानकारी साझा करते हुए बताया है, कि अभी तक देश में 22 करोड़ से ज्यादा किसानों को सॉइल हेल्थ कार्ड बांटे जा चुके हैं। इसके साथ ही कृषि मंत्री तोमर ने अपने ट्विटर अकाउंट से जानकारी दी कि सॉइल हेल्थ कार्ड वितरण के कार्य को आसान बनाने के लिए देश में 500 सॉइल टेस्ट लैब, मोबाइल सॉइल टेस्ट लैब, 8811 मिनी सॉइल टेस्ट लैब और 2395 ग्रामीण स्तर पर सॉइल टेस्ट लैब बनाई गई हैं। 

इस प्रकार से की जाते हैं मिट्टी की जांच

आज के युग में मिट्टी की जांच बेहद महत्वपूर्ण कार्य है। अच्छी उपज के लिए मिट्टी के स्वास्थ्य की जानकारी होना बेहद आवश्यक है। मिट्टी की जांच के द्वारा यह पता करने में आसानी होती है, कि मिट्टी में किसी भी प्रकार के पोषक तत्वों की कमी तो नहीं है। यदि मिट्टी में पोषक तत्वों की किसी भी प्रकार की कमी पाई जाती है, तो यथाशीघ्र उस कमी को दूर किया जा सकता है।

 विशेषज्ञों के अनुसार, मिट्टी की क्वालिटी जांचने के 12 पैरामीटर्स होते हैं। इन पैरामीटर्स में मिट्टी में मौजूद अलग-अलग पोषक तत्वों की पहचान की जाती है। मिट्टी में N, P, K, S, Zn, Fe, Cu, Mn, PH, EC, OC और Bo जैसे पोषक तत्व पाए जाते हैं। मृदा की जांच के दौरान मिट्टी में इन सभी पोषक तत्वों की उपलब्धता के बारे में जानकारी प्राप्त हो जाती है। 

ऐसे बनवाएं सॉइल हेल्थ कार्ड

सॉइल हेल्थ कार्ड बनवाने के लिए किसान भाई मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना की ऑफिशियल वेबसाईट soilhealth.dac.gov.in पर जाकर बेहद आसानी से अपना सॉइल हेल्थ कार्ड बनवा सकते हैं। जैसे ही, किसान भाई अपना सॉइल हेल्थ कार्ड बनवा लेते हैं, वैसे ही अधिकारी किसान के खेत पर आकार लैब में जांच के लिए सैंपल ले जाते हैं। इसके बाद सैंपल की गुणवत्ता की जांच मृदा परीक्षण प्रयोगशाला में की जाती है। सभी जांच होने के बाद अधिकारी मिट्टी के स्वास्थ्य को लेकर एक रिपोर्ट बनाते हैं, जिसे मृदा स्वास्थ्य कार्ड कहा जाता है।

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अब इस मृदा स्वास्थ्य कार्ड को किसान भाई ऑनलाइन भी डाउनलोड कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें सॉइल हेल्थ कार्ड स्कीम की ऑफिशियल वेबसाइट soilhealth.dac.gov.in पर जाना होगा। जहां फार्मर्स कॉर्नर के सेक्शन पर जाकर प्रिन्ट सॉइल हेल्थ कार्ड पर क्लिक करके मृदा स्वास्थ्य कार्ड बेहद आसानी से डाउनलोड किया जा सकता है।

जानें किस वजह से हरियाणा को मिला स्कॉच गोल्ड अवार्ड

जानें किस वजह से हरियाणा को मिला स्कॉच गोल्ड अवार्ड

कृषि एवं बागवानी के क्षेत्र में अनेकों उपलब्धियां प्राप्त करने के उपरांत हरियाणा ने मृदा स्वास्थ्य कार्ड(Soil Health Card Scheme; Mrida Swasthya Card) एवं फसल क्लस्टर विकास जैसे कार्यों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर स्कॉच गोल्ड अवार्ड हासिल किया है। भारत में कृषि क्षेत्र की दिशा में तीव्रता से विकास-विस्तार किया जा रहा है। इस क्षेत्र में बहुत सारे राज्य काफी अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं, इसलिए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यताएं प्रदान की जा रही हैं। इसी क्रम में हरियाणा द्वारा भी कृषि एवं बागवानी जगत में विभिन्न सफलताएँ पायी हैं। फिलहाल, एक नवीन उपलब्धी हेतु हरियाणा राज्य के कृषि व बागवानी विभाग को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया गया है। दरससल, दोनों विभागों ने सॉइल हेल्थ कार्ड एवं फसल क्लस्टर विकास कार्यक्रम में हासिल की गयी उपलब्धियों हेतु स्कॉच गोल्ड अवॉर्ड पाया है।

किसानों की आमदनी में होगा इजाफा

हरियाणा की इस उपलब्धि को लेकर सरकार के प्रवक्ता ने कहा है, कि नई दिल्ली में स्कॉच गोल्ड अवॉर्ड से सम्मानित करने हेतु हरियाणा की ओर से कृषि एवं किसान कल्याण विभाग की मुख्य सचिव डॉ. सुमिता मिश्रा एवं बागवानी विभाग के महानिदेशक अर्जुन सैनी उपस्थित रहे थे। बतादें, कि हरियाणा विगत कुछ सालों से पारंपरिक खेती सहित बागवानी फसलों पर भी ध्यान केंद्रित कर रहा है। राज्य सरकार द्वारा कृषि एवं बागवानी की दिशा में भी विविधिकरण के जरिये से कृषकों की आमदनी में वृद्धि एवं सरकारी योजनाओं का फायदा दिलाने में अहम भूमिका निभायी है।

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कृषि व्यवसाय और बागवानी में हरियाणा की क्या स्थिति है

मीडिया से की गयी वार्तालाप के दौरान हरियाणा सरकार के प्रवक्ता ने बताया कि, खाद्यान्न के संबंध में हरियाणा राष्ट्रीय स्तर पर योगदान में दूसरे पायदान पर है। हरियाणा राज्य ने बागवानी विविधिकरण एवं कृषि व्यवसाय को प्रोत्साहित करने हेतु भी कई सारे अच्छे कदम बढ़ाये हैं। 

हरियाणा ने लगभग 700 किसान उत्पादक संगठन बना करके 400 बागवानी फसल समूहों का मानचित्रण कर दिया है। उनका यह भी कहना है, कि हरियाणा सरकार द्वारा फसल क्लस्टर विकास कार्यक्रम आरंभ हो गया है। इसके चलते क्लस्टर के बैकवर्ड एवं फॉरवर्ड लिंकेज को ताकतवर बनाने हेतु एफपीओ के जरिये ऑन-फार्म इंडीग्रेटेड पैक गृह स्थापित किये गए हैं, जिस पर लगभग 510.35 करोड़ रुपये के व्यय का प्रावधान है। इस योजना के माध्यम से राज्य में 33 एकीकृत बनकर स्थापित हो गए हैं एवं 35 पर तीव्रता से कार्य चल रहा है। 

हरियाणा के मृदा जाँच लैब का संचार तंत्र कैसा है

कृषि से उम्दा पैदावार हेतु विश्वभर के कृषकों को मृदा की जांच पड़ताल की बेहतर सुविधा प्रदान की जा रही है। जिसके लिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना जारी हो चुकी है। हरियाणा सरकार के प्रवक्ता ने मीडिया से की गयी बातचीत के दौरान हरियाणा में इन मृदा जांच प्रयोगशालाओं का काफी बड़ा संचार तंत्र है। बतादें, कि इन लैब्स में कृषकों की पहुंच को सुगम बनाया गया है। 

हरियाणा में प्रत्येक 20 से 25 किलोमीटर की दूरी पर एक सॉइल टेस्ट लैब उपलब्ध हैं। उन्होंने कहा है, कि वर्ष 2020-21 से पूर्व तक प्रदेश में 35 मृदा जांच प्रयोगशालाएं उपलब्ध थीं, जहां प्रत्येक वर्ष 7.4 लाख मृदा के नमूनों की जांच हो रही थी। बीते 2 वर्ष में इन सॉइल टेस्ट लैब की तादात में वृद्धि होकर 95 लाख पर पहुँच गई है, जहां प्रति वर्ष 30 लाख मृदा के नमूनों की जांच की जा रही है। खबरों के अनुसार, हरियाणा सरकार ने वर्ष 2021-22 से 2022-23 के मध्य 60 नवीन मृदा जांच प्रयोगशालाएं स्थापित की गयी हैं।

जानिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड क्या है और इससे किसानों को क्या फायदा होता है।

जानिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड क्या है और इससे किसानों को क्या फायदा होता है।

किसानों के खेत की मृदा जांच के लिए हर जगह प्रयोगशालाएं स्थापित की गई हैं। इन प्रयोगशालाओं में वैज्ञानिकों द्वारा जांच के पश्चात मिट्टी के गुण-दोष की सूची तैयार की जाती है। जैसा कि हम जानते हैं, प्रत्येक राज्य सरकार अपने अपने स्तर से किसानों की आमदनी बढ़ाने की हर संभव मदद करती है। मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना भी इसी प्रकार की एक योजना है। 

इस योजना के अंतर्गत किसान अपनी मिट्टी की जांच कराते हैं और फिर रिपोर्ट के आधार पर खेती किया करते हैं। ऐसा करने से खेती में उनका खर्च भी कम लगता है। साथ ही, उत्पादन भी पहले की तुलना में बढ़ जाती है। ऐसा इस वजह से क्योंकि जब आपकी मिट्टी की जांच होती है, तो यह पता चल जाता है कि आखिर मृदा में कमी क्या है और इसे किस तरह सही करना है। इसके साथ-साथ ये भी पता चल जाता है, कि आखिर इस मृदा में कौन सी फसल बेहतर होगी।

मृदा स्वास्थ्य कार्ड कब बनता है

इस कार्ड को बनवाने हेतु आपको योजना की ऑफिशियल वेबसाइट soilhealth.dac.gov.in पर जाना पड़ेगा। इसके पश्चात होम पेज पर मांगी गई जानकारी भरकर Login के विकल्प पर क्लिक करना होगा। पेज खुलने पर अपना राज्य चुनें और Continue के बटन पर क्लिक करना होगा। अगर पहली बार आवेदन कर रहे हैं, तो नीचे Register New User पर क्लिक करें और रजिस्ट्रेशन फॉर्म भर दें। 

आपको इस रजिस्ट्रेशन फॉर्म में User Organization Details, Language, User Details, User Login Account Details की जानकारी भरनी पड़ेगी। फिर फॉर्म में समस्त जानकारी सही-सही भरकर अंत में सबमिट के बटन पर क्लिक करना होगा। ऐसा करने के उपरांत लॉगिन करके मृदा की जांच हेतु आवेदन कर सकते हैं। 

आप यदि चाहें तो हेल्‍पलाइन नंबर 011-24305591 और 011-24305948 पर भी कॉल कर संपर्क साध सकते हैं। उसके उपरांत आप helpdesk-soil@gov.in पर ई-मेल भी कर सकते हैं।

मृदा स्वास्थ्य कार्ड से क्या फायदा होता है

मृदा स्वास्थ्य कार्ड (soil health card) योजना के अंतर्गत भारत का कोई भी किसान भाई मृदा की जाँच करा सकता है। इस कार्ड की मदद से कृषक सहजता से जान सकता है, कि मृदा में किन पोषक तत्वों की कमी है। जल कितना उपयोग करना है और किस फसल का उत्पादन करने से उन्हें लाभ हांसिल होगा। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि कार्ड बनने के उपरांत किसानों को मिट्टी में नमी का स्तर, मृदा की सेहत, उत्पादक क्षमता, क्वालिटी एवं मिट्टी की कमजोरियों को सुधारने के तरीकों के संबंध में बताया जाता है। 

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हर जगह प्रयोगशालाएं भी लगवाई गई हैं

किसानों के खेत की मृदा जांच के लिए हर जगह प्रयोगशालाएं लगवाई गई हैं। दरअसल, इन प्रयोगशालाओं में वैज्ञानिकों द्वारा जांच के पश्चात मृदा के गुण-दोष की सूची तैयार की जाती है। इसके साथ ही इस सूची में मृदा से संबंधित जानकारी और सही सलाह उपस्थित होती है। मृदा स्वास्थ्य कार्ड के मुताबिक, खेती करने से फसल की पैदावार क्षमता और किसानों की आमदनी में काफी वृद्धि होती है। इसके साथ-साथ खाद का इस्तेमाल एवं मृदा का संतुलन बिठाने में भी सहायता मिलती है।